साहब..मैं कुत्ता हूँ..
अपनी जात का आदमी सूँघ लेता हूँ..
फिर हम मंडलियों में भौंकते हैं..
जिसकी भौंक जितनी ऊँची..
उसकी जात का उतना रुतबा..
और हम यूँ ही भौंकते रहते हैं..
कभी किसी वजह से..
पर अक्सर बेवजह ही..
पर रात के मनहूस अंधेरों में..
कुछ चहलकदमी सी होती है..
ख़ामोशी के चेहरे पर..
खून के छींटे पड़ते हैं..
और तब जो चीखें उठती है,,
वो हर जात की होती है..
सुना है दूर उस जंगल में..
चंद भेड़िये रहते हैं..
और ये भी कि..
उनकी जात नहीं होती.......!!